Nose to Nose

Jamboree festival 2020

Theatrical clowning tends to approach things more from a theatrical standpoint through the use of clowns. It can take several forms. Whether one oriented towards physical comedy, a storyline, or a one-man show are just a few examples. Do you know, there are even groups who tell classical  story (like Macbeth or Kalidas’s Shakuntalam) in a clown-ish way.

Theatrical clowning emphasizes character and relationships rather than circus skills. Material is created by conceptualization and improvisation, often utilizing one’s own life experiences. It is the state of imbalance that drives the process of creative expression and brings the “imagination” into action.

The Heart of Wondering

Why can’t boys wear dresses?
What happens when we die?
Why do we have only two eyes?   
Why do we wonder?

These are just some of the questions asked by the group of young performers during the children theatre workshop in January 2019, although we do not necessarily to find the correct answers.

During this theatre workshop allow the children to discover that findings the answer is not always where the satisfaction lies, but the opportunity to wonder is where the delight is. The Heart of Wondering can remind us of this. Of the importance of curiosity. Of the discoveries that can come from exploration. Of the gratification that comes from the process of learning. Sometimes we lose this inquisitiveness with age and sometimes those older than us discourage or suppress this desire to Wonder!

Monologue

Theme: Relationships |Gender: Female |Age: 13 to 16 yr |Genre: Dramatic

मेरा मतलब यह नहीं कि मैं तुमको चोरी चुपके सुना करती हूँ। सच बोल रही हूँ , यह दीवार देखो ! इतनी पतली है कि मैं चाह कर के भी इग्नोर नहीं कर पाती। तुम वाकई में बहुत सुन्दर गाती हो दीदी ! तुम जब भी रात को गाती हो पता नहीं मुझे क्यों इतनी शांति मिलती हैं। मैं जैसे रिलैक्स होने लगती हूँ। मेरे सारे टेंशन्स-एंग्जायटी, कुछ पल के लिए सब भूल जाती हूँ। जी चाहता है बस तुमको ही सुनती रहूं। बार – बार।

पता है तुम मुझको बिलकुल पसंद नहीं करती हो। मैं भी तो कभी कभी तुम्हारा दिल दुखा देती हूँ। याद है, एक दिन, मैं टाइम से तुमसे मिलने कॉलेज नहीं आ पायी थी। तुम उस दिन बहुत गुस्सा हुई थी। मुझे बहुत डांटा भी था। उस रात मैं बहुत रूयी थी दीदी । But please… don’t yell at me again. I hate it when you do that, or when you stop talking to me!
पर दीदी मुझसे नाराज़ न होना प्लीज। मैं सच में तुमको बहुत प्यार करती हूँ। तुमको मिस करती हूँ। हमेशा तुम्हारे पास ही रहना चाहती हूँ।

हां हां , मुझे यह भी पता है तुमको बिलकुल पसंद नहीं की कोई तुम्हारे गीतों को चोरी चुपके सुने। तुम अपने सीक्रेट्स किसी से भी शेयर नहीं करना चाहती हो। और हर किसी को अपना प्राइवेसी रखने का पूरा हक़ है। पर दीदी, तुम्हारे गीत में जितनी शांति मिलती है उतना दुख का एहसास भी होता हैं। कभी सोचती हूँ तुम किसी परेशानी में तो नहीं हो। अब तुम बोलोगी मैं कुछ ज़ायदा ही सोचती हूँ। और अपनी प्रोब्लेम्स बता भी दिए तो कौन सा तुम मेरे प्रोब्लेम्स के सोलूशन्स दें पाऊँगी ? पर दीदी तुम मुझसे बात कर सकती हो। एटलीस्ट मैं तुम्हारी बातेँ सुन तो सकती हूँ।

अच्छा ठीक हैं मत बताओ ! पर गाना गाना बंद मत करना प्लीज। तुम्हारे गीत मुझे सोने में मदद करता है। तुम्हारे गीतों में मुझे कई कहानियां सुने को मिलती हैं। प्लीज यह कहानियां कहना बंद मत करना जो बिलकुल तुम्हारे दिल से निकलती है।

प्लीज दीदी, प्लीज!






ड्रामा अपने आप में कविता है !

जैसे एक छोटा पौधा, धीरे धीरे विशाल और सुन्दर वृक्ष बनता हैं. वैसे ही कई प्रक्रिया के बाद साहित्य और भाषा भी एक नए रूप में रची जाती हैं. भारत में, वैदिक काल से मौखिक शिक्षण और सीखने की परंपरा रही हैं. ड्रामा भी एक औपचारिक विधि-विधान हैं, जहाँ पहले मौखिक से लिखित फिर लिखित से मौखिक में इबारत की जाती है. यह अद्भुत प्रक्रिया हैं जहाँ भाषा अपने संरचना और रचनात्मक कार्यो से कला को गरिमा और सम्मान देती हैं. इसी तरह कविता, साहित्य का ही एक रूप है जो रंगमंच अपने कला और अभिनय से पिरोती है. रंगमंच में सबसे ज़ायदा रोमांचक नाटक की रिहर्सल रही है. नाटक या अभिनेता अपने सतत साधना के साथ प्रयास करती हैं. जाहे कोई भी कला हो जैसे अभिनय, संगीत, साहित्य, कविता आदि एक सामाजिक विकास के उपकरण के तेहत उपयोग किया जाता है चाहे वह मानवाधिकार, लिंग समानता, पर्यावरण और लोकतंत्र जैसे विचारो को भली भांति स्वतंत्र रूप से पैदा करती हैं.

फिर कोई फ़रिश्ता कहने वाला मिले

कल जो इंसान मिला था.
आज वो खामोश है.
कल याद भी न रहेगा की . . . किसी को फ़रिश्ता कहा था उसने .
मैं नादान हूँ ,
अनजान हूँ.
कल बहुत खुश थी.
आज. . . कल सी होना चाहती हूँ.
कल इंतज़ार होगा… की
फिर कोई फ़रिश्ता कहने वाला मिले . .

मेरी ज़रूरत भी

 मेरी ज़रूरत भी

जाने क्यों नहीं ढूंड पाती मैं ,
तुममे भी,
फूलों की नरमी, इन्द्रधनुषी रंग, कोई कविता, कोई स्वप्न.
तुम मेरे लिए बस तुम ही रहते हो,
तुम्हारा इतना भर होना ही ….मेरी ज़रूरत भी !

: कितना सहज :

दो पलों का प्यार
कितना सरल ! कितना कठिन !

कितना सहज  .. यह संयोग !
कितना सहज  यह  अलगाव !!!

बचपन

सोचू…की लिखू
समझु की सुनू

मौन आँगन में
बचपन की कोमल नभ
याद आता हैं !

उनने चाहा !

उनने चाहा कि
मैं कुछ बात करूँ
उनने चाहा कि
उनकी हाँ में हाँ करूँ ।

उनकी ज़ेबो में
सुलग रहे थे एकाध बौने सूरज
वे चाहते थे
कि
मैं भी झुकूं
और उन्हें प्रणाम करूँ ।

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Rangmanch..

मेरे राय में थिएटर में केवल तीन मुख्य एलिमेंट्स होते हैं। पहला तो ‘नाटक‘ दूसरा ‘एक्टर्स‘ और तीसरा ‘ऑडियंस‘।

चौथे एलिमेंट की ज़रूरत नही हैं पर अफ़सोस आजकल थिएटर करने वाले और देखने वाले, दोनों ही पहले के तीन चीज़ो को हमेशा नज़रअंदाज़ करते आये हैं और बाकी चीज़ो में अपना सारा समय, पैसा और ऊर्जा बर्बाद करते हैं।

अधिकतर नाटक करने वाले जो ‘मॉडर्न थिएटर’ का परिचय देते हैं वो सिर्फ इन बातों पर ध्यान देते है की सेट कैसा होना चाहिए? ऑडीटोरियम कैसा हो? म्यूजिक कितना लाउड और इफेक्टिव हो? आदि… आदि। पर नाटक कैसा हो? आपके एक्टर्स कैसे हो ? ऑडियंस कैसी होनी चाहिए ?  इस पे काम कम होता हैं या यूँ कहिये नहीं होता हैं ।  हम सिर्फ और सिर्फ अपनी कमियों को पूरा करने के लिए हम चौथा एलिमेंट पे ज़्यादा ज़ोर देने लगते हैं।

थिएटर जो पहले ” People’s Theatre ” हुआ करता था अब वह एक सिंबॉलिक बन कर रह गया हैं। यह बिलकुल वैसी ही बात हैं की हम अपने लोकल और फोक थिएटर को भूलते जा रहे। न कोई करने को तैयार है और देखने वालो की बात ही छोड़िये.  दूसरी तरफ, नेशनल, इंटरनेशनल और ‘सेलेब्रिटी’ ‘नाटक पे ज़्यादा खर्चा करने को तैयार हैं.उन ही के लिए भीड़ (ऑडियंस) आती हैं, टिकट के लिए पैसा खर्च होता और देखने के लिए समय भी निकल जाता है। वास्तव में देखा जाये, हम ने दो भागों में भारतीय थिएटर को अलग कर रखा है। क्षेत्रीय थिएटर संबंधित राज्य सरकारों की दया पर छोड़ दिया है।

हम देश में अपने क्षेत्रीय थिएटर के  के लिए एक राष्ट्रीय नीति तैयार नहीं कर पाये है। इन बेचारो के पास न तो पैसा है और न ही समय।